जैसा हमने मांडू देखा...

मांडू यानी बाज बहादुर और उसकी प्रेमिका रानी रूपमती के प्रेम की गवाह जगह देखने की हसरत आखिरकार 16 जनवरी को पूरी हो गई। यह काफी पुरानी ख्वाहिश थी। किसी एकदम अनजान जगह जाना वह भी अकेले काफी उहापोह भरा कदम होता है। हालांकि हर बार की तरह इस बार भी मुंह उठाए और बस सीधे गंगवाल बस स्टैंड के करीब से बस पकड़ लिए। बिना किसी खास उद्देश्य के या कहें बस उत्सुकता पूरी करने के लिए यात्राएं करने का अलग आनंद होता है। इंदौर से बस ने धार छोड़ा। धार कभी मध्य भारत का प्रमुख सांस्कृतिक केंद्र हुआ करता था। यह मालवा की राजधानी भी रह चुका है। धार पर हिंदू और मुस्लिम दोनों शासकों ने शासन किया है। धार का बस स्टैंड तो बहुत अच्छा नहीं था लेकिन काफी साफ सुथरा था। इंदौर की तरह हमने धार में भी देखा कि स्वच्छता में नंबर वन के लिए कैंपेन हो रहा था। यात्रा पूरी करके वापस लौटने पर सीनियर रिपोर्टर सुचेंद्र जी से इसके बारे में पूछा तो पता चला कि ऐसा पूरे मध्यप्रदेश में हो रहा है। खैर, बस धार से करीब एक घंटे बाद मांडू के लिए छूटी। एक दिलचस्प बात छूटती जा रही है। इंदौर से बस में बैठने पर कंडक्टर से मांडू बताया तो उसने मांडव कहा। इस पर हमें लगा कहीं दो तो नहीं है। लेकिन कंडक्टर ने ही इसका समाधान किया। उसने थोड़ा कन्फ्यूज होते हुए भी बताया कि दोनों एक है। मालवी में मांडव बोलते हैं। बस करीब 12 बजे मांडव यानी मांडू पहुंची। जल्दी-जल्दी घूमने को सोचे तब लगा कि मांडू के बारे में तो कुछ जानते ही नहीं। यह दूसरी ऐतिहासिक जगहों से काफी अलग भी दिखा। किले और इमारतें बिखरी हुई हैं करीब दस से 15 किलोमीटर में। 
सबसे पहले जामी मस्जिद के लिए 25 रुपए का टिकट लिया। भीतर जाकर एक-दो तस्वीरें क्लिक की। तेज धूप की वजह से तस्वीर कैप्चर करने में दिक्कत हो रही थी। इसलिए यहां बस एक ही तस्वीर ली। इस मस्जिद के बारे में कहा जाता है कि ये सीरिया के दमिश्क की किसी मस्जिद की नकल है। हालांकि मस्जिद के आर्किटेक्चर, उसकी डिजाइनों और उस पर बने भित्ति चित्रों को गौर से देखें तो इसमें कहीं न कहीं हिंदू शैली नजर आती है। संभवत: जिस दौर में यह बनी थी, उस वक्त पुरानी तोड़ी गई इमारतों की सामाग्री का ही प्रयोग दूसरी इमारतों को बनाने में हुआ करता था। ऐसा कई जगह देखने को मिलता है। जैसे कि दिल्ली का कुतबुब मीनार कॉम्प्लेक्स। मस्जिद से बाहर निकल नींबू-पानी पीते समय रेहड़ी वाले ने किराए की साइकिल के बारे में बताया। उसकी दी गई इस जानकारी ने तो हमारी मुंह मांगी मुराद पूरीकर दी। दो चार लोगों से पूछकर पहले मैं रूपमती मंडप तक पैदल जाने की हिम्मत कसा था। लेकिन जल्द ही अहसास हुआ कि वक्त कम है और घूमना ज्यादा। ऐसे में पैदल चलने की क्षमता आजमाने का वक्त नहीं है यह। यह फैसला सही ही रहा। रूपमती मंडप जामी मस्जिद के चौराहे से करीब छह से सात किलोमीटर दूर था। नींबू पानी वाले ने किराए के साइकिल वाले को बुलाया। वह मस्जिद की सीढ़ियों पर ही बैठा था। उसका बेटा फोटोग्राफी कर रहा था। लड़का घर ले गया और साकिइल दी। करीब एक साल बाद साइकिल चलाने का नतीजा यह था कि पहले दो किलोमीटर में ही पैर हाथ खड़े करने लगे। लेकिन ऐसे कैसे जाने देते। इस साइकिल यात्रा में एक तो तितलौकी, दूजे चढ़ी नीम की डाल का काम ऊंची-नीची सड़क कर रही थी। कुछ-कुछ दूरी पर खतरनाक चढ़ाई ने हालत पस्त कर दिया। हांफते-डांफते पहुंच गए रानी रूपमती मंडप। साइकिल खड़ी की गई रेवा कुंड के करीब में। 

रेवा कुंड के बारे में कहा जाता है कि इसी में रानी रूपमती नहाती थी। उसे बाजबहादुर अपने महल से देखता था। उसे प्रेम हो गया। उसका महल करीब में ही है मुश्किल से 200 मीटर दूर। रेनहवा कुंड की हालत इस वक्त बेहद खराब है। कुंड का पानी बेहद गंदा था। बच्चे उसमें नहा रहे थे। पास में कुछ कमरे बने थे। संभवत: कपड़े बदलने के लिए बनाए गए रहे होंगे। आगे बाजबहादुर और रूपमती मंडप देखने के लिए भी 25 का टिकल लेना पड़ा। पूरे मांडू में यह थोड़ा अजीब लगा कि तीन बार टिकट लेना पड़ा। जामी मस्जिद के लिए, बाज बहादुर महल और जहाज महल के लिए।
बाज बहादुर महल, 16 वीं सदी की एक इमारत है जिसमें बड़ा सा आंगन, बड़ा सा हॉल और एक छत शामिल है्। यह महल, रूपमती और बाज बहादुर के बीच की प्रेम कहानी के दूसरे पहलू को दिखाता है जो धर्म और दुनियादारी से परे थी। हालांकि, महल की दीवारों पर समय और प्रकृति की मार स्‍पष्‍ट दिखाई देती है, महल की दीवारों के कई खंभे और प्रवेश द्वार, लम्‍बे गलियारों से गुजरते हुए यहां के सुनहरे अतीत की झलक देखी जा सकती है जो पूरे महल में दिखाई पड़ती है। महल का गार्डन एरिया, अद्भुत और शांत दृश्‍य प्रदान करता है। इस महल को 1509 में बनवाया गया था। बाज बहादुर महल  1555 से 1561 के बीच में बनाकर तैयार हुआ था। इस महल की वास्‍तुकला में कला और स्‍थापत्‍य का खूबसूरत नमूना है। हालांकि 16वीं सदी की मुगलों की इमारतों से इसकी तूलना करेंगे तो कहीं नहीं ठहरती। यह साफ-साफ मुगल वैभव और एक छोटे राजा के बीच फर्क दिखाता है। ऐसा हमने राजस्थान के के किलो में भी महसूसा है।
इस महल की नीरव शांति चुभ सी रही थी। यहां कबूतर भी नहीं थे। जो अधिकांश किलों और खंडहरों को गुलजार किए रहते हैं। इसके गलियारों में टहलते हुए महसूस हुआ, सम्राज्यवाद की कीमत प्रेम ने भी कम नहीं चुकाई है। बाज बहादुर एक अदने से व्यक्ति के रूप में रूपमती से प्रेम करता तो क्या पता उनका यह हस्र न होता। अकबर न तो हमला करता और न ही रूपमती जहर खाकर जान देती। बाजबहादुर के डर कर भाग जाने की कहानी भी उस पर गुस्सा दिलाती है। किसी किले में चहलकदमी करते हए सात आठ सौ साल पहले के वक्त को महसूस करना भी रोमांचक होता है।
बाज बहादुर के किले से निकलर कर कदम बढ़ाया गया रानी रूपमती मंडप की ओर। यह समुद्र तल से करीब 375 फुट की ऊंचाई पर है। यह दूर से देखने पर एक बुर्ज नुमा लगता है। इसे कसंभ्हते भले ही मंडप हैं लेकिन कहीं से मंडप जैसा लगता नहीं है। संभवत: इस जगह पर परिहार राजाओं ने एक सैन्य चौकी बनाई थी। जिसे बाद में बाज बहादुर ने छतरियां वगैरह बनाकर मंडप का रूप दे दिया। इस इमारत में कलात्मक नजरिए से बहुत कुछ खास नहीं है। इस तक पहुंचना थोड़ा दुर्गम है। पास में करीब 300 मीटर दूर नर्मदा बहती है। जो इस मंडप से देखने पर चांदी की रेखा सी लगती है। जैसा कि कहते हैं, रूपमती यहीं से नर्मदा दर्शन किया करती थी। यह भी इस प्रेम कहानी का खूबसूरत पहलू है।

रूपमती महल से लौटते हुए रास्ते में आई छोटी-छोटी इमारतें भी देखी। जाते वक्त उन्हें छोड़ दिया था। अच्छा ही रहा। छोटी इमारतें इत्मिनान से देखने को कहती हैं। दाई महल देखा। इसे किसने बनवाया था, कब बना था। इन चीजों के बारे में कोई जानकारी नहीं लिखी गई थी। लेकिन यह उस वक्त दाई के महत्व पर प्रकाश डालता है। यह भी है कि राजा का हर चीज खास होता है। मरे हुए लोगों के लिए इतनी जगह लिए मकबरे बनते थे तो दाइयों का महल तो बनता ही था। हालांकि यह भी मकबरा ही है। महल भले ही नाम में जुड़ा हो। यह एक बेहद साधारण सी इमारत है। जो कि मालवा इस्लामिक शैली में बनी है। जिस पर दिल्ली के तुगलक सल्तनत का प्रभाव है। तुगलक सल्तनत का प्रभाव मांडू में दूसरी इमारतों में भी देखने को मिलता है। इसके अलावा मुंगिश खान की मस्जिद देखी। यह भी खंडहर हो चुकी है। इसका रेनोवेशन का काम चल रहा है। कई और छोटी इमारतें, मकबरे देखते हुए वापस जामी मस्जिद आ गए।

यहां से जहाज महल देखने पहुंचे। यह पूरे मांडू की सबसे खूबसूरत इमारत है। इसे पूरे मांडू का नगीना कह सकते हैं। इमारत तो है ही खूबसूरत लेकिन इसकी पानी साफ करने की तकनीक ने का प्रभवित किया। किस तरह हजार साल पहले पानी साफ करने, संरक्षण करने की व्यवस्था थी। यह बेहतरीन है। इस छोटे से परिसर में कई सारी बावड़ियां और सरोवर हैं। निश्चित रूप से यहां से पूरे मांडू को जल आपूर्ति हुआ करती रही होगी। इसमें हिंडोला महल है। संभवत: इसे गयासुद्दीन ने बनवाया था। इस इमारत की खास बात यह है कि ये बिना नींव की इमारत है। पत्थर के भारी-भरकम प्लेट पर इसके पिलर टिकाए गए हैं। ये पीलर भीतर की ओर झुके हैं। जिसके चलते टिके हुए हैं। इस इमारत में छत नहीं है। कहते हैं कि भार कम करने के लिए ऐसा किया गया है। इसपर ग्रीको रोमन स्थापत्य का प्रभाव है। इसे बनाने में लाल बलुआ पत्थर का इस्तेमाल हुआ है।




खंडहरों को किसी का इंतज़ार नहीं--

न ही उन चिड़ियों का जो उड़तीहैं इन खंडहरों के ऊपर--बारिश का भी नहीं ।न धूप का ।न तारों का ।
खंडहरों को चिन्ता है तोसिर्फ़ दीवारों को फोड़करउगे पौधों कीघास कीजिनसे बंधे हैं वे ।



प्रयाग शुक्ल की कविता 'खंडहर'

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पुराना ख़ून है उनमें

मृत मुँह से चबाते हैं वे अंधेरा वहाँ

जहाँ चमकी थीं तलवारें

मनहूस अंधेरे में होती हैं राजसी दावतें

सूरज फ़ेंक रहा है अभी भी कुछ तीर

-- जॉर्ज हेइम

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इतिहास के दरवाजे-खिड़कियां 


बिना नींव की इमारत....  हिंडोला महल 


सूनापन सिहरा,
अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले उभरे,
शून्य के मुख पर सलवटें स्वर की,
मेरे ही उर पर, धँसाती हुई सिर,
छटपटा रही हैं शब्दों की लहरें
मीठी है दुःसह !!

मुक्तिबोध

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रूपमती मंडप

बस्ती की वह ककैया ईंटों की हवेली
जो कभी हंसती-महकती थी
अर्से से पड़ी है वीरान, खंडहर।

उसकी देहरी पर कभी किरणें करती थीं जुहार
सख्त हवाएं करती थीं मनुहार
महफिलें सजा करती थीं जहां
गूंजा करती थी जहां जय-जयकार
आज ध्वंस के प्रहारों ने उसको घेरा है
कहते हैं--
ध्वंस में नव-निर्माण का बसेरा है!



राजेन्द्र सारथी

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झरोखे से... जहाज महल का एक कोना



....सूख गया पानी

...जिंदगीनामा
पुराना खंडहर घर और सूना दालान
मूक स्मृति का रुद्ध क्रन्दन करता है हाय-हाय,
मरे दिनों की समाधि की भीत का है अन्धकार
घुमड़-घुमड़ उठता है प्रभात के कण्ठ में
मध्याह्न वेला तक।
खेत और मैदान में सूखे पत्ते उड़ रहे हैं
घूर्ण चक्र में पड़ हाँप रहे मानो वे।
सहसा काल वैशाली
करती है बार बर्बरता का
फागुन के दिन जब जाने के पथ में हैं।

रवींद्र नाथ ठाकुर



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टूटी खिड़की
फूटे झरोखे से
बाहर झाँकता
सन्नाटा।
आहटों और दस्तकों का
इंतजार करता।
इंतजार करता
किसी अपने का,
थक कर
फिर दुबक जाता है
किसी अँधेरे कमरे के
टूटे-फूटे कोने में
निराश हो कर।
यही है खंडहर

जिंदगी का।

मंजूषा मन

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स्मृतिदु:ख

वैसे स्मृति भी एक पाश है। भोग की स्मृति, चाहे दु:ख भोग हो, चाहे सुख-भोग, बंधनकारक होती है। मरण स्मृति शायद मुक्त करती है। मरना है यह याद रहे तो आदमी या औरत बहुत से झंझटों से छूट जाता है। इसकी अति भी बरजने जैसी है। हमेशा यह लगा रहे कि अब मरा, तब मरा, या मरना है, इसलिए लट्‌ठे की तरह पड़े रहना है, तो यह भी अच्छा नहीं। स्मृति चाहे भोग की हो, चाहे मरण की हो, पाश ही है। क्योंकि यह जो नहीं है उसे जो है पर थोप देती है। इसलिए जो है उसमें जीना नहीं होता। जो या तो बीते हुए सुख-दु:ख में जीता है, या आने वाली मृत्यु के भय में जीता है वह न टलने वाले वर्तमान में नहीं जी पाता। इसलिए नहीं जीता और दु:ख पाता है। स्मृति काल क्रम को ही तखड़-पखड़ कर देती है। इसलिए दु:ख होता है।

- कृष्णनाथ के यात्रा वृतांत 'स्पीति में बारिश' से








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