ऊंघता-अनमना सा एक जंगल...

बुधवार 1 अगस्त को मैने सिरपुर बर्ड सेंचुरी की राह पकड़ी। इसे जंगल तो नहीं कहना चाहिए, लेकिन शहर के लगभग बीच में इतने पंछी, जीव वाली हरी-भरी जगह को जंगल ही नाम देना चाहिए। थोड़ी आर्टिफिसियल तरीके से डेवलप की हुई है तो उससे चार कदम खुद ही पसरी हुई लगती है। इतनी बड़ी वाटर बॉडी वह भी साफ  तो आजकल शहर के आसपास मिलना मुश्किल है। भवानी प्रसाद मिश्र जी की कविता है सतपुड़ा के घने जंगल। उसमें वे लिखते हैं-

झाड़ ऊंचे और नीचे/ चुप खड़े हैं आंख मीचे
घास चुप है, कास चुप है/मूक शाल, पलाश चुप है
बन सके तो धंसो इनमें/धंस न पाती हवा जिनमें 
सतपुड़ा के घने जंंगल/ऊंघते अनमने जंगल

यह जगह भी ऊंघ ही रही थी। फिजा में एक नीरव शांति और साफ हवा के नशे में हर चीज चूर। हमने कुछ तस्वीरें कैप्चर की। काफी दिन बाद इतना सुकून मिला। भवानी प्रसाद मिश्र जी सही कहते हैं जंगल में धंसो, डरो नहीं। हमने भी गिलहरी, बगुले और तमाम दोस्तों से दोस्ती की कोशिश की। अभी तो एकदम नहीं हो पाई लेकिन गिल्लू ने खूब पोज दिए। बाकी आप खुद देखिए: 




....छुप-छुप के न खा, छुप-छुप के 

गिल्लू रानी

ये भाई.... छुपने की अदा देखो 

... मिट्‌टी में मिल जाना है 

ढूंढ़ उजड़े हुए लोगों में वफा के मोती 

सावन का राजकुमार 

थोड़ी-बहुत गुफ्तगू 


बगुला भगत 

Beauty of the Ugliness

....ऐसे न शरमाओ जी 

सुनो गिलहरी ! क्या खूब झांकती हो शान से,
                             पेड़ की फुनगी के मचान से ..


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